Surdas ke Dohe सूरदास जी के प्रमुख दोहे एवं उनके अर्थ

Surdas ke Dohe Surdas ke Pramukh Dohe सूरदास के प्रमुख दोहे और उनके अर्थ नमस्कार दोस्तो, आज हम आपके लिए सूरदास के प्रमुख दोहों को लेकर आयें है। जो कि भगवान श्री कृष्ण के बाल्य काल की व्याख्या करतें है। कि भगवान श्री कृष्ण किस प्रकार से बृज में रहतें थे और उन्हे बृज के लोग कितना प्रेम करतें थे।

surdas ji ke dohe

Surdas ke Dohe

दोस्तों जैसा की आप जानते है। कि सूरदास कृष्ण भक्तित काल के प्रसिद्ध कवि माने जाते है। उन्होने श्री कृष्ण की भकि्त की व्याख्या की है। की श्री कृष्ण भगवान बचपन में कैसे थे साथ ही उन्हे बृज के लोग चाहे वे गोपिया हो या ग्वाल बाल हो उन्हे कितना प्रेम करते थें। इन्ही सभी चीजों को भगवान श्री कृष्ण के यहाँ पर वर्णन किया गया है।

सूरदास जी की रचनाओं में कृष्ण भक्ति का भाव उजागर होते हैं। सूरदास जी का कहना था कि श्री कृष्ण के प्रति आस्था और उनकी भक्ति ही मनुष्य को मोक्ष दिला सकती हैं। सूरदास जी की ब्रज भाषा में भी अच्छी पकड़ थी। जो एक बार भी सूरदास जी की रचनाओं को पढ़ता है वो कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण के रुप का वर्णन श्रृंगार और शांत रस में किया है। वहीं बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप जैसे योद्धा भी सूरदास जी से काफी प्रभावित थे। सूरदास ने श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और उनके सुंदर रूप  का इस तरह वर्णन किया है कि मानो उन्होंने खुद अपनी आंखों से नटखट कान्हा की लीलाओं को देखा हो।

सूरदास के दोहे एवं उनके अर्थ

दोहा-👉
“हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर आवत।। माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत। कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।। दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत। सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।।”
दोहे का अर्थ-👇
राग रामकली में आबध्द इस पद में सूरदासजी जी ने भगवान् कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया हैं। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता हैं वो गाते हैं। वह छोटे छोटे पैरो से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं।
कभी वह भुजाओं को उठाकर कली श्वेत गायों को बुलाते है, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं और घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं।
श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन में प्रसन्न होती हैं। सूरदासजी कहते हैं की इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य हर्षाती हैं।
दोहा-👉
“जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी।।
हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी। रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।।
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी। जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी।।
लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।।”
दोहे का अर्थ-👇
सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित हैं। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन हैं। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आयी। वो बोली की हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए।
पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा की माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई हैं तो मुझे बहुत पछतावा हुआ।
जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनकी आंखों में आंसू भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।
दोहा-👉
“अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया। दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।
गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।”
दोहे का अर्थ-👇
सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबध्द हैं। भगवान् बालकृष्ण अब मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया नंदबाबा को बाबा और बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं।
इतना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया के नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं की लल्ला गाय तुझे मारेंगी।
सूरदास कहते हैं की गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता हैं। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयाँ दे रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं की हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।
दोहा-👉
“बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी।।
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी। सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी।।
तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी।।”
दोहे का अर्थ-👇
सूरसागर से उध्दुत यह पद राग तोड़ी में बध्द है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा की हे गोरी! तुम कौन हो ? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो?
हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी की नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता हैं।
तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।
दोहा-👉
“जसोदा हरि पालनै झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै।।
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहुं पलक हरि मुंदी लेत हैं कबहुं अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै। इहि अंतर अकुलाइ उठे हरी जसुमति मधुरै गावै। जो सुख सुर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनी पावै।।”
दोहे का अर्थ-👇
राग घनाक्षरी में बध्द इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया हैं। वह कहते हैं की मैया यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में झुला रही है। कभी तो वह पालने को हल्कासा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी चूमने लगती हैं।
ऐसा करते हुए वह जो मन में आता हैं वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती हैं। इसलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं की आरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता हैं। जब
यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी पलकें मूंद लेते हैं और कभी होठों को फड़काते हैं। जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा की अब तो कान्हा सो ही गया हैं। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं।
इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब उन्हें सुलाने के उद्देश से पुन: मधुर मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते है की सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।
दोहा-👉
“कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात। कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।।”
दोहे का अर्थ-👇
यह पद रामकली में बध्द हैं। एक बार कृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे की रोते रोते नेत्र लाल हो गये। भौंहें वक्र हो गई और बार बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकालते थे।
घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धुल – धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते।
सूरदास कहते हैं की श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक एक पाल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।

सूरदास जी के प्रमुख दोहे

दोहा-👉
“मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृन्दावन की रेनु। नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु।।
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन। चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु।।
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनी के ऐनु। सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पब्रूच्छ सुरधेनु।।”
दोहे का अर्थ-👇
राज सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं और अंधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उसी भूमि पर श्यामसुंदर का स्मरण करने से मन को परम शांति मिलती हैं।
सूरदास मन को प्रभोधित करते हुए कहते हैं की अरे मन! तू काहे इधर उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती हैं। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं।
ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती हैं। सूरदास कहते हैं की ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्व प्रतिपादित किया हैं।
दोहा-👉
“मैं नहीं माखन खायो मैया। मैं नहीं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।।
देखि तुही छींके पर भजन ऊँचे धरी लटकायो। हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।।
मुख दधि पोंछी बुध्दि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो। डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।।
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।।”
दोहे का अर्थ-👇
“सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद राग रामकली में बध्द हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिध्द है। वैसे तो कान्हा ग्वालिनों के घरो में जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा मैया ने उन्हें देख लिया।
सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। यशोदा मैया ने देखा की कान्हा ने माखन खाया हैं तो उन्होंने कान्हा से पूछा की क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब बालकृष्ण ने अपना पक्ष किस तरह मैया के सामने प्रस्तुत करते हैं, यही इस दोहे की विशेषता हैं।
कन्हैया बोले ………मैया! मैंने माखन नहीं खाया हैं। मुझे तो ऐसा लगता हैं की ग्वाल – बालों ने ही बलात मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले की मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा हैं मेरे हाथ भी नहीं पहुच सकते हैं। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा था उसे छिपा लिया।
कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन में मुस्कुराने लगी और कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदासजी कहते हैं यशोदा मैया को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रम्हा को भी दुर्लभ हैं।

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दोस्तों कैसी लगी हमारी यह आज की लेख आप हमें जरूर बताये तथा इसमें से आपको  विशेष रूप से कौन दोहा अच्छा लगा। इसके बारे में भी आप हमें बतायें साथ ही आप हमे यह बताये कि क्या वास्तव मे उस समय तुलसीदास जी ने सही कहा था कि आज का समाज ऐसा होगा। इसलिए आप हमें Comment करना न भूलें।

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